काश की में जख्म बन जाऊ और तू मरहम, लगे तू जितनी बार मुझपर उतनी ही बार में करहा उठू प्यार से। दायरा समझ के बहार का मेरा बस इतना सा ही, देखु रब एक सब में । मजहब “माँ” का न पूछो लोगो। उदर मे.. मैं पल रहा था उसके, उसने हर मजहब का निवाला मुझको खिलाया था। आशा चंपानेरी “टिनू”