प्रवर्तन वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस का सुन्दरकाण्ड पढ़ने, समझने और धारण करने के अवसर बाल्य काल से ही आते रहे। कभी अनुष्ठान, कभी नित्य पाठ तो कभी समूह पाठ में रुचि रही आयी। यदाकदा इन विषयों पर बोलने एवं शंका समाधान के भी प्रसंग आते रहे। श्री हनुमानजी के प्रति निष्ठा बढ़ती गयी। भक्त हनुमान, वीर हनुमान आदि तो थे ही परन्तु भारत की युवाशक्ति को राष्ट्रीय संदर्भों में जितनी प्रेरणा श्री हनुमानजी से मिलती है, इतनी भारतीय संस्कृति में किसी भी चरितनायक से नहीं मिलती है। लिखने लगा तो क्रमशः एक सुदीर्घ निबन्ध हो गया। गुजरात में हिन्दी टंकण की असुविधा से लगभग एक वर्ष बाद यह चि. आलोक जोशी के द्वारा टंकण किया जा सका है। प्रायः सांस्कृतिक और राष्ट्रीय कार्यों के लिए तत्पर श्री भरत ठाकोर के प्रकाशनार्थ आग्रह को इस प्रकार सफलता मिल सकी है। उनके उत्साह से मुझे सतत ऊर्जा मिलती है, वे एक विद्वान आचार्य के रूप में ख्याति प्राप्त करे – यही शुभकामना है। हनुमानजी का गूढ़ चरित्र अप्रतिम है परन्तु सामान्यतया उनके चरित्र के कुछ बिन्दुओं को सप्रमाण उपस्थापित करने का प्रयास किया गया है। आशा है पाठकों को सन्तोष मिलेगा – यही मेरे लिए आनन्द का विषय है। श्री हनुमानजी के विषय में सोचने लिखने की आग्रह जिन सज्जनों से मिला है इससे मुझे कैङ्कर्य का ही लाभ हुआ है, अस्तु उनके प्रति कृतज्ञता मेरा कर्तव्य है। निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।। तुलसीदास का यही कथन मुझे साहस देता है। भारतीयता के उपासकों को समर्पित करते हुए – -प्रो. मिथिलाप्रसाद त्रिपाठी चैत्र पूर्णिमा २०८०, इन्दौर
